आखिरी कविताओं को मौत के बादमिला साहित्य अकादमी, संसद से सड़क तक एंग्री राइटर कहे जाने वाले कवि ‘धूमिल
‘न कोई प्रजा है न कोई तंत्र है, ये आदमी के खिलाफ आदमी का षड़यंत्र है।’ एक ऐसा व्यक्ति जिसने तंगहाली में लोहा ढोया और मजदूरों की जिंदगी को बेहद करीब से जाना। अपने गांव में मैट्रिक करने वाले पहले व्यक्ति बने लेकिन तंग हाली के चलते फिर आगे पढ़ाई नहीं कर पाए।
एक ऐसा कवि जिसने ‘ससंद से सड़क तक’ हर बात को गहराई से महसूस किया और लिखा भी। ये कवि थे ‘सुदामा पांडेय धूमिल’। आशोक वाजपेई ने धूमिल के लिए लिखा “धूमिल मात्र अनुभूति के नहीं, विचार के भी कवि हैं। उनकी रचनाओं में अनुभूति के साथ ही विचार, इतिहास और समझ, एक-दूसरे से घुले-मिले हैं।
कविता को मनोरंजन नहीं हलफनामा कहा
धूमिल ‘अकविता आंदोलन के प्रमुख कवि थे। एक ऐसे कवि जिन्होंने कविता को मनोरंजन नहीं बल्कि एक हथियार, एक हलफनामे की तरह उपयोग किया। उन्होंने जो कविताएं लिखीं वो कविताएं किसी कल्पना से नहीं, बल्कि उनके अपने भोगे दुख से उपजी थीं। इसलिए उनकी कविता में एक अलग तरह की आक्रामकता नजर आती है।
कविता सीखने की बैचेनी और धूमिल
आर्थिक तंगी की वजह से धूमिल को अपनी शिक्षा छोड़नी पड़ी थी। वरिष्ठ कथाकार काशीनाथ सिंह ने कहा था कि उच्च शिक्षा से महरूम रहने और कविता सीखने की इतनी बैचेनी थी कि धूमिल हमेशा विद्यार्थी बने रहे। उन्होंने बाद में डिक्शनरी की मदद से अंग्रेजी भी सीखी।
वाराणसी के गांव से कलकत्ता तक
हिंदी के समकालीन कवि सुधाकर धूमिल पांडेय वाराणसी के पास एक छोटे से गांव खेवली में 9 नवंबर 1936 में पैदा हुए थे।
उनकी कविताओं में आजादी के सपनों के मोहभंग होने का दुख और आक्रोश की सबसे मजबूत अभिव्यक्ति थी। धूमिल ने 1953 में मैट्रिक पास किया, तब वो अपने गांव के मैट्रिक पास करने वाले एकमात्र छात्र थे।
वो 10 फरवरी 1975 में 39 वर्ष की अल्पायु में ही ब्रेन ट्यूमर की वजह से इस संसार को छोड़ गए थे। साधारण से दिखने वाले धूमिल कितने बड़े कवि थे ये उनके परिवार वालों को तब पता चला जब रेडियो पर उनकी मौत की खबर सुनाई गई।
धूमिल को वो 3 कविताएं जो हर किसी को पढ़नी चाहिए :-
गृहस्थी
मेरी भुजाओं में कसी हुई तुम मृत्यु कामना कर रही हो
और मैं हूं-कि इस रात के अंधेरे में देखना चाहता हूं धूप का एक टुकड़ा तुम्हारे चेहरे पर।
रात की प्रतीक्षा में हमने सारा दिन गुजार दिया है
और अब जब कि रात आ चुकी है हम इस गहरे सन्नाटे में बीमार बिस्तर के सिरहाने बैठकर किसी स्वस्थ क्षण की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
विद्रोह
‘ठीक है, यदि कुछ नहीं तो विद्रोह ही सही’ हंसमुख बनिए ने कहा
‘मेरे पास उसका भी बाजार है’ मगर आज दुकान बन्द है, कल आनाआज इतवार है।
मैं ले लूंगा। इसे मंच दूंगा और तुम्हारा विद्रोह मंच पाते ही समारोह बन जाएगा
फिर कोई सिरफिरा शौकीन विदेशी ग्राहक आएगा।
मैं इसे मुंह मांगी कीमत पर बेचूँगा।
लोहे का स्वाद
“शब्द किस तरह कविता बनते हैं
इसे देखो अक्षरों के बीच गिरे हुए आदमी को पढ़ो
क्या तुमने सुना कि यह लोहे की आवाज है
या मिट्टी में गिरे हुए खून का रंग” लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो जिसके मुंह में लगाम है।
(धूमिल की अंतिम कविता लोहे का स्वाद मानी जाती है।)
साहित्य अकादमी और अंतिम संग्रह
धूमिल के जीवित रहते 1972 में उनका सिर्फ एक कविता संग्रह प्रकाशित हो पाया था। संसद से सड़क तक ‘कल सुनना मुझे’ उनके निधन के कई साल बाद छपा और उस पर 1979 का प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार उन्हें मृत्यु के बाद दिया गया।
बाद में उनके बेटे रत्नशंकर की कोशिशों से उनका एक और संग्रह ‘सुदामा पांडे का प्रजातंत्र छपा’ आलोचक प्रियदर्शन ने मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय के बाद धूमिल को ही मुक्ति के ताले खोलने वाली तीसरी बड़ी आवाज कहा था।
जो बम मुक्तिबोध के भीतर कहीं दबा पड़ा है और रघुवीर सहाय के यहां टिकटिक करता नजर आता है, धूमिल की कविता तक आते-आते जैसे पड़ता है, इस तरह कि उसकी किरचें हमारी आत्माओं तक पर पड़ती हैं।
धूमिल की कविता मोचिराम को 2006 में NCRT में शामिल किया गया था, इसका कड़ा विरोध किया गया, जिसके बाद इसे हटा लिया गया।